तवायफों के लिए ये रात होती है बेहद दर्दनाक!

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मुजरा एक नृत्य कला होती है जो मुगल काल से शुरू होकर ब्रिटिश काल तक बेहद प्रचलित था।

आज भी कोठों और महफिलों में नृत्य किया जाता है। बस तोड़ा संगीत और नृत्य करने का तरीका बदल गया।

एक तवायफ के लिए मुजरा बेहद खास होता था।

 लेकिन आखिरी मुजरे वाले दिन तवायफ बेहद दुखी रहती थी। अंतिम मुजरा एक रस्म होती थी।

उसके बाद फिर वो कभी महफिल में नहीं नाच सकेंगी।

आखिरी मुजरा करने के बाद तवायफ को बेच दिया जाता था। 

उसके बाद उसका काम बस अपने मालिक को खुश करना होता है। उसका अपनी जिंदगी पर को हक नहीं रहता।

इस रस्म को नथ उतराई भी कहा जाता है और बोली लगाने वाला ही केवल  तवायफ के साथ फिजिकल रिलेशन बना सकता था।