पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे, सफाई के बदले शिक्षा ग्रहण करने वाले सुमित आज ओलंपिक में हॉकी खेल रहे हैं। कभी शादियों में जूठे बर्तन की सफाई की तो कभी ढोल बजाकर घर चलाने का प्रयास किया।स्कूल की छुट्टी हुई नहीं कि बैग लेकर अपने बड़े भाई के साथ होटल पर हाथ बंटवाने पहुंच जाता था। 2 घंटे हॉकी के लिए भी दिनचर्या में शामिल किए तो आज उनके खेल की तूती बोलती है। लेकिन हॉकी के माध्यम से ओलंपिक में आज देश का प्रतिनिधित्व करने वाला सुमित कभी हॉकी के मैदान पर जाना भी मुनासिब नहीं समझता था। घर में उसके पास कपड़े नहीं थे। कपड़े का लालच उसे मैदान तक खींच लाया था। खेल के बदले कपड़े मिलेंगे और अच्छा खेला तो बहुत सारे सम्मान मिलेंगे। घर की गरीबी दुर हो जाएगी..ये लफ्ज़ उसके गुरुजी नरेश ने कहे तो सुमित ने इतिहास की धारा बदलकर जिंदगी का लक्ष्य हॉकी को बनाया..देखिए सुमित की दर्द भरी दास्तां
इतिहास बदलने वाले ही चुनौती स्वीकार किया करते हैं और ऐसी ही चुनौती स्वीकार करने वाले सुमित बाल्मीकि हैं। सुमित आज ओलंपिक में हॉकी में देश का प्रतिनिधित्व कर रहा है। जिसके पारिवारिक हालात काफी दयनीय रहे हैं। जिनको बयां करना भी उनके लिए आसान नहीं है। एक वक्त होता था जब पूरा परिवार एक ही कमरे में रहता था और बारिश के दिनों में छत टपकने लगती थी। रात भर टपकने वाली छत के बंद होने इसका इंतजार करते थे और ऐसे करते-करते सुबह हो जाती थी और हालात यह थे कि सुबह मजदूरी करने के लिए जाना पड़ता था।
सुबह के वक्त दोनों भाइयों को होटल पर जाकर सफाई कर खाना लेकर आना होता था।क्योंकि घर पर खाने के लिए भी पूरी तरह जुगाड़ नहीं था तो इसलिए होटल पर काम के साथ-साथ खाना भी मिल जाता था। घर आने के बाद खाना खाकर फिर स्कूल का रुख करते थे। जहां गांव के दो स्कूल थे।जहां पढ़ाई करने के लिए उनके हालात मजबूत नहीं थे । गांव के दो निजी स्कूल ने उन्हें आश्रय दिया। सुमित और उसके भाई की उनकी प्राथमिक शिक्षा हुई। स्कूल की फीस देने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए सुबह दोनों भाइयों ने सुबह के वक्त स्कूल की सफाई का जिम्मा उठाया हुआ था। विवाह शादियों मे बर्तन साफ करने पर जहां उन्हें मजदूरी मिलती थी तो साथ में थोड़ी मिठाई मिलना उनके लिए किसी खुशी से कम नहीं होती थी ।शुरुआती तौर पर सुमित के लिए डाइट भी मैनेज करना तो दूर खाने के लिए भी लाले पड़े रहते थे। सुमित ने लगभग 2003 के आसपास गांव के प्रतिष्ठित कोच और टीचर नरेश अंतिल के मैदान पर खेलना शुरू किया था।
घर के दरवाजे ,खिड़कियां आज भी सुमित के बीते हालात को मुखर करते हुए नजर आते हैं। यही वह घर है जहां से एक ही छत के नीचे पूरा परिवार जीवन बसर करता था।आज उनका बड़ा भाई इस मकान में पिताजी के साथ रह रहा है। घर की चारदीवारी से लेकर घर की पुरानी चौखट इस बात के लिए गवाही दे रही है कि जब इंसान बुरे हालात में संघर्ष कर रहा होता है तो उसके बुरे दिन कभी ना कभी जरूर बदलते हैं। आज भी घर के दरवाजे टूटे हुए नजर आ रहे हैं। सुमित ने जहां गरीबी से लड़ाई लड़ी है और आज जिस मुकाम पर वह पहुंचा है वह उसका खेल हॉकी है और हॉकी खेलने की शुरुआत तब हुई थी जब उसे यह लालच था कि उसे मैदान पर जाने पर कुछ नए कपड़े मिल जाएंगे। लेकिन वास्तविकता ही थी कि गांव कुराड के कोच और अध्यापक नरेश ने गांव और आसपास के बच्चों को कपड़ो को देना खेल के प्रति दिलचस्पी बढ़ाना था।
पहली बार मैदान पर सुमित हॉकी खेलने के लिए नहीं बल्कि कपड़े लेने के लिए गया था। क्योंकि ग्रामीण स्तर पर कोच नरेश हॉकी के प्रति गांव के बच्चों में दिलचस्पी पैदा करने के लिए अलग-अलग तौर तरीके अपना रहे थे और एक नायाब हीरा सुमित के तौर पर उन्होंने तराशा और ऐसा तराशा कि सुमित को पीछे पलट कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी और प्रत्येक मुकाम पर संघर्ष करते हुए आगे पहुंच गया और आज सुमित देश का नाम रोशन कर रहा है।
सुमित ने पारिवारिक हालात समझते हुए हर काम में जी तोड़ मेहनत करी है और जहां उसके पास खाने की डाइट भी पूरी तरह से नहीं मिलती थी बावजूद इसके हॉकी के मैदान पर प्रतिदिन जाकर कई घंटों तक जी तोड़ मेहनत करता था और इसके पीछे उनके गुरु जी हॉकी कोच नरेश का महत्वपूर्ण योगदान है।गांव की उबड़ खाबड़ जमीन पर नायाब हीरे तैयार करने वाले कोच नरेश ने साल 2000 में अपने गांव कुराड से ही हॉकी खिलाने का कार्य शुरू किया था। इसी मैदान पर पहली बार सुमित भी अपने भाई अमित के साथ कपड़े के लालच में पहुंचा था… लेकिन जब सुमित को खिलता हुआ देखा तो उसके कोच ने उसे मैदान से जोड़े रखने के लिए अलग-अलग तौर-तरीके अपनाए और जब सुमित की दिलचस्पी हॉकी के प्रति तलब में तब्दील हो गई तो सुमित हर दिन अपनी हॉकी से हर किसी को प्रभावित करने लगा और पहली बार जब मैदान पर पहुंचा था तो उसके पास ना सटीक थी और ना ही कपड़े थे। लेकिन गुरु अपने शिष्य को कभी पीछे नहीं छोड़ता। यह बात उनके गुरु नरेश ने बखूबी निभाई और पहली बार कोच नरेश ने लुधियाना से मंगवाई हिंडन स्टिक थंभाई थी।
उनके कोच ने बताया कि आज भी सुबह जल्दी उठकर पहले गांव के ग्राउंड में जाकर65 बच्चों को हॉकी की बारीकियां सिखाते हैं और आज इसी मैदान पर टॉप 16 बच्चे सुमित की भांति तैयार हो चुके हैं। जो काफी तारीफ ए काबिल है। उनके कोच अपने जवानी के दिनों में हॉकी खेलते हुए ज्यादा कामयाबी हासिल नहीं कर पाए। लेकिन उन्होंने निर्णय किया था कि वह अपने गांव के ही किसी बच्चे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भेज कर अपने सपने को पूरा करेंगे और आज वह दिन सबकी आंखों के सामने है की गुरु और शिष्य की मेहनत से सुमित ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व कर रहा है और अब सुमित से देश के खातिर मेडल लाने के लिए टकटकी लगाए हुए बैठे हुए हैं।