इंडिया न्यूज, Haryana News (Dastaan E Rohnaat): आजादी के अमृत महोत्सव के कार्यक्रमों की श्रृंखला में सूचना, जन संपर्क एवं भाषा विभाग हरियाणा के सौजन्य से श्री कपालमोचन मेला परिसर बिलासपुर जिला यमुनानगर में स्वतंत्रता संग्राम में हरियाणा से जुड़ी बड़ी घटना पर दास्तान-ए-रोहनात नाटक का जीवंत मंचन किया गया।
कपालमोचन मेले में आए हजारों श्रद्धालुओं ने नाटक देखकर कलाकारों के भव्य रूप से प्रस्तुत किए मंचन की सराहना की। कलाकारों की प्रस्तुति ने दर्शकों के रोंगटे खड़े कर दिए और युवा पीढ़ी को देशभक्ति का संदेश दिया। उपायुक्त एवं कपालमोचन मेले के मुख्य प्रशासक राहुल हुड्डा ने दीप प्रज्वलित करके नाटक मंचन कार्यक्रम का शुभारंभ किया।
उपायुक्त राहुल हुड्डा ने कहा कि दास्तान-ए-रोहनात नाटक के माध्यम से देश की आजादी में हरियाणा के सूरमाओं की कुर्बानी को याद किया जा रहा है। यह हरियाणा सरकार का सहरानीय कदम है, ताकि युवा पीढ़ी को आजादी की लड़ाई के वीर शहीदों एवं रणबांकुरों की कुर्बानियों की जानकारी मिल सके। भिवानी के गांव रोहनात में 23 मार्च-2018 से पहले कभी भी आजादी का जश्न नहीं मनाया जाता था, परन्तु सरकार ने इसे गंभीरता से लिया और उस गांव में भी राष्ट्रीय ध्वज फहराया। पहली बार मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने गांव के बुजुर्ग के हाथों राष्ट्रीय ध्वज फहरवाया और यहां के लोगों को आजादी के गौरव का अहसास करवाया।
उन्होंने कहा कि देश के अनेक सपूत ऐसे थे, जिनके नाम आजादी के इतिहास में दर्ज नहीं हो पाए और जाने-अनजाने में उन्हें भुला दिया गया। ऐसे गांव रोहनात के तीन योद्धा- नौंदाराम, बिरड़ा दास तथा रूपराम खाती थे, जिनके नाम इतिहास में दर्ज नहीं हो पाए, लेकिन ये योद्धा देश के लिए अपना फर्ज निभा गए। रोहनात गांव के ये वीर अंग्रेजों के जुल्म का शिकार हुए। नौंदाराम को अंग्रेजों ने तोप के गोले से उड़ा दिया। वहीं बिरड़ा दास को मेख ठोक-ठोककर मार दिया। इसी प्रकार रूपराम खाती ने भी अपनी कुर्बानी दी। कहा जाता है कि मंगल पांडे भी इनसे मिलने आते थे और वहां के लोगों को संगठित करने में इनका बड़ा योगदान रहा। इन्हीं के योगदान पर नाटक दास्तान-ए-रोहनात आधारित है।
29 मई, 1857 को हरियाणा के रोहनात गांव में ब्रिटिश फौज ने बदला लेने के इरादे से एक बर्बर खूनखराबे को अंजाम दिया। बदले की आग में ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़सवार सैनिकों ने पूरे गांव को नष्ट कर दिया। लोग गांव छोड़कर भागने लगे और पीछे रह गई वह तपती धरती जिस पर दशकों तक कोई आबादी नहीं बसी। दरअसल यह 1857 के गदर या सैनिक विद्रोह, जिसे स्वतंत्रता की पहली लड़ाई भी कहते हैं। दास्तान-ए-रोहनात नाटक अपने आप में अनूठा व यादगार है।
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