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Haryana OBC Community : चुनाव से पहले ओबीसी बिरादरी का राजनीतिक दलों पर बढ़ता दबाव, मांग रहे 30 फीसदी लोकसभा व विधानसभा सीट 

• LAST UPDATED : February 19, 2024
  • चुनाव से पहले सभी पार्टियों पर दबाव की राजनीति, सत्ता में उचित हिस्सेदारी न मिलने का दिया हवाला 

  • कश्यप बिरादरी ने भी मांगी 1 लोकसभा और 10 विधानसभा सीट राजनीतिक दलों से 

डॉ. रविंद्र मलिक, India News (इंडिया न्यूज़), Haryana OBC Community, चंडीगढ़ : हरियाणा की राजनीतिक में जातीय समीकरणों की अहमियत रही है और चुनावों में टिकट वितरण में इसकी अहम भूमिका रहती है। हरियाणा में समय-समय पर अलग-अलग जातियों और समुदायों ने उनकी अनदेखी होने और सरकार में सही प्रतिनिधित्व न मिलने का हवाला देते हुए चुनावों में ज्यादा से ज्यादा टिकटों की मांग की। ब्राह्मण, ओबीसी और एससी समुदाय समय-समय पर उनकी जाति का सीएम होने की मांग भी उठाते रहे हैं।

इसी कड़ी में अब प्रदेश का ओबीसी समुदाय पिछले कुछ समय से लगातार सत्ताधारी दलों पर समुदाय के लोगों की अनदेखी के आरोप लगा रहा है। गत रोहतक रैली में भी समुदाय के लोगों ने उनकी अनदेखी के आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार में ओबीसी समाज अब तक अपने हक और अधिकारियों से मरहूम है और उनको सही हक नहीं मिला तो सत्ताधारी दलों को समुदाय के लोग वोट नहीं करेंगे। इसी कड़ी में 18 फरवरी को करनाल में कश्यप बिरादरी ने समाज के कार्यक्रम में राजनीतिक दलों से कम से कम 1 लोकसभा और 10 विधानसभा सीटों की मांग की है और ऐसा न करने वाली पार्टी को टिकट नहीं देने का ऐलान किया है।

25 टिकट मांग रहे ओबीसी समुदाय के नुमाइंदे

पिछले कुछ समय से ओबीसी समाज के संगठनों के पदाधिकारियों की मांग है कि समुदाय के लोगों को हरियाणा की 90 विधानसभा सीटों में से कम से कम 25 मिलें। गत रोहतक रैली में भी कहा गया कि हरियाणा में ओबीसी समुदाय के काफी वोट बैंक होने के बावजूद समाज के लोगों को उस लिहाज से टिकट नहीं दी जाती और अबकी बार लोकसभा की 10 में से 3 और विधानसभा की 90 में से कम से कम 25 सीट ओबीसी समुदाय के लोगों को दी जाए, ताकि उनको उनका हक मिल सके। साथ ही चेतावनी देते हुए कहा कि अगर उनकी मांग को पूरा नहीं किया जाता तब तक यह लड़ाई जारी रखेंगे। आखिरकारी राजनीतिक पार्टियों को उनकी मांग पूरी करनी होगी।

हरियाणा में करीब 30 फीसदी ओबीसी परिवार

हालांकि हरियाणा में जातिगत जनगणना तो नहीं हुई, लेकिन पिछले साल सरकार ने पीपीपी आधार पर वर्ग विशेष को लेकर 72 लाख परिवारों में से 68 लाख के आंकड़े जारी किए थे। पिछले साल परिवार पहचान पत्र स्कीम के तहत  सामान्य, एससी, बीसी और बैकवर्ड क्लास के परिवारों के आंकड़े जरूर सामने आए हैं। हरियाणा में एससी व बीसी वर्ग की बात करें तो कुल जनसंख्या का ये करीब 51 फीसदी हैं। पीपीपी के आधार पर प्रदेश की कुल संख्या 2 करोड़ 83 लाख है। बीसी ए वर्ग के लोगों की संख्या 4793312 है जो कुल जनसंख्या का 16.93 फीसदी हैं। इनके अलावा बीसी बी कैटेगरी की संख्या 3797306 है।

ये जनसंख्या का 13.41 फीसदी है। इनके अलावा हरियाणा में एससी वर्ग के लोगों की संख्या 5861131 है और कुल का 20.71 प्रतिशत है। ऐसे में प्रदेश की कुल जनसंख्या का पांचवा हिस्सा एससी वर्ग का है। आने वाले चुनावों में एससी व बीसी वर्ग आंकड़ा देखते हुए साफ है कि ये दोनों ही साइडिंग फैक्टर साबित होने वाले हैं। ये भी बता दें कि ये भी बता दें कि प्रदेश में 72 लाख परिवारों ने पीपीपी बनवाने के लिए आवेदन किया। इनमें से 68 लाख परिवारों का डाटा उस समय वेरीफाई हो चुका था। लगभग 2.5 लाख परिवार ऐसे हैं, जो किसी अन्य राज्य में रह रहे हैं।

नायब सैनी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भाजपा ने खेला था ओबीसी कार्ड

पिछले साल सत्ताधारी भाजपा ने जाट समुदाय से आने वाले अपने स्टेट चीफ ओपी धनखड़ को हटाते हुए ओबीसी समुदाय से आने वाले और सीएम के करीबी नायब सैनी को इस पद पर बैठाया था। कुछ मामलों पर ओबीसी समाज की सरकार से नाराजगी के चलते भाजपा को ये कदम उठाना पड़ा। भाजपा को इस बात का अच्छे से इलम है कि जाट समुदाय की भाजपा से कई मामलों पर काफी टशल चल रही है जिसके चलते जाट वोटर्स के भाजपा से खिसकने की संभावना ज्यादा है। ऐसे में भाजपा को ओबीसी वोटर्स के जरिए इस संभावित नुकसान की भरवाई की संंभावना नजर आई और इसी के मद्देनजर नायब सैनी को प्रदेश अध्यक्ष की कमान दी गई।

जातीय जनगणना की मांग भी उठी

उपरोक्त कड़ी में ये भी बता दें कि पिछले कुछ समय से हरियाणा में भी जातीय जनगणना की मांग उठती रही है। नवंबर 2023 में हरियाणा में ओबीसी समाज के नुमाइंदों ने जातीय जनगणना नहीं करवाने को लेकर सरकार को घेरते हुए कहा था कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। इसी कड़ी में गत 17 फरवरी को रोहतक में ओबीसी समाज की गर्जना रैली में भी इसकी मांग उठी। जातीय जनगणना के पहलू के बारे में भी जानना जरूरी है और गौरतलब है कि देश में जाति आधारित जनगणना की मांग दशकों पुरानी है।

विपक्ष के अनुसार इसका उद्देश्य अलग-अलग जातियों की संख्या के आधार पर उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना और जरूरतमंदों तक सरकारी योजनाओं का लाभ देना मकसद बताया जाता है। बता दें कि साल 1872 में ब्रिटिश शासन के दौरान पहली बार जनगणना हुई थी। इसके बाद 1872 से लेकर 1931 तक जितनी भी दफा जनगणना हुई, इसमें जाति के आंकड़ों को दर्ज किया गया था।

इसके बाद आजादी के बाद साल 1951 में पहली बार आजाद भारत में जनगणना करवाया गया। इस दौरान केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़ों को ही शामिल किया गया था, लेकिन 1951 के बाद 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 और 2011 के किसी जनगणना में जातीय आंकड़े को शामिल नहीं किया गया है। एक तरह से साफ है कि देश आजाद होने के बाद यहां जातीय जनगणना नहीं हुई है और इसको लेकर तमाम सियासी दल अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से मामले से इत्तेफाक रखते हैं।

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