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Ratnavali 2024 : हरियाणवी पगड़ी को रत्नावली ने पूरे विश्व में…, समारोह के आज आखरी दिन पहुंचे सीएम नायब सैनी

• LAST UPDATED : October 28, 2024
  • हरियाणवी लोक सांस्कृतिक विरासत की प्रतीक है पगड़ी

India News Haryana (इंडिया न्यूज), Ratnavali 2024 : पगड़ी हरियाणा की लोक सांस्कृतिक परम्परा का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है और इसके इतिहास की बात करें तो यह काफी पुराना है। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़, पगड़ी, पगमंडासा, साफा, पेचा, फेंटा, खंडवा, खंडका आदि नामों से जाना जाता है, जबकि साहित्य में पगड़ी को रूमालियो, परणा, शीशकाय, जालक, मुरैठा, मुकुट, कनटोपा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से जाना जाता है।

Ratnavali 2024 : महोत्सव में युवाओं का पगड़ी बांधने के प्रति विशेष उत्साह

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के युवा एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम विभाग ने पगड़ी की परम्परा को बनाये रखने एवं इसे जीवंत करने के लिए सन् 2014 में पगड़ी बांधने की प्रतियोगिता रत्नावली में शुरू की। आज हरियाणवी पगड़ी बांधने की प्रतियोगिता में अनेक युवा एवं युवतियां भाग लेती हैं। युवाओं में पगड़ी बांधने के प्रति विशेष उत्साह है। यह जानकारी लोक संपर्क विभाग के निदेशक डॉ. महासिंह पूनिया ने दी। आज कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में रत्नावली महाकुंभ का अंतिम दिन है और सीएम नायब सैनी इस अवसर पर पहुंचे हैं।

प्राचीनकाल में पगड़ी का इसलिए किया जाता था प्रयोग

पूनिया ने जानकारी देते हुए कहा कि आज अंतर्राष्ट्रीय सूरजकुंड क्राफ्ट मेला, अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव तथा हरियाणा के सभी उत्सवों में पगड़ी का उत्साह विशेष रूप से देखने को मिलता है। यह उत्साह युवक एवं युवतियों में विशेष रूप से देखने को मिलता है। उन्होंने बताया कि प्राचीनकाल में सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर पर धारण किया जाता है, इसलिए इस परिधान को सभी परिधानों में सर्वाेच्च स्थान मिला।

वास्तव में पगड़ी का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, लू और वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, किंतु धीरे-धीरे इसे सामाजिक मान्यता के माध्यम से मान और सम्मान के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है। यदि पगड़ी के अतीत के इतिहास में झांक कर देखें तो अनादिकाल से ही पगड़ी को धारण करने की परम्परा रही है। उन्होंने बताया कि अनादिकाल से वर्तमान तक पगड़ी ने अपनी हजारों वर्ष की यात्रा के अंतर्गत अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकार बदले किन्तु मूलरूप से पंगड़ी में कोई परिवर्तन नहीं आया।

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पगड़ी का पारम्परिक इतिहास

पगड़ी का पारम्परिक इतिहास की शुरुआत भगवान शिव की जटाओं से होती है। शिव अपने केशों को पगड़ी आकार रूप में बांधते थे। संभवतः आदि देवता शिव से ही प्रेरणा पाकर पगड़ी को बांधने की शुरूआत हुई। आरम्भिक काल में शिव की परम्परा से जुड़े हुए साधु-संत अपने केशों को पगड़ी-आकार में बांधने लगे। समाज में जब वर्ग-व्यवस्था की स्थापना हुई तो पुरुषों ने केश कटवाने शुरु कर दिए, किंतु आदिकाल से चली आ रही पगड़ी की परम्परा ने केशों के स्थान पर कपड़े की पगड़ी के रूप धारण कर लिया।

इतना ही नहीं, ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पगड़ी का परिधान तो सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पहले था। उस समय नर और नारी दोनों ही पगड़ी पहनते थे। इस युग में इसे ‘उष्राशि’ के नाम से पुकारा जाता था। उस समय पगड़ी मूलतः सूती कपड़े, रेज्जे, रंगीन रेशम की बनी होती थी। रामायण काल में पगड़ी को विशेष महत्ता मिली। इसी काल में पगड़ी को लोकलाज़ के साथ जोड़ दिया गया।

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डॉ. महासिंह पूनिया ने बताया कि देश की आजादी के समय पगड़ी संभाल जट्टा गीत के माध्यम से देशभक्ति समाज की लाज़ बचाने का संदेश दिया गया, इससे भला कौन परिचित नहीं है? उन्होंने बताया कि हरियाणा में धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, जाति के आधार पर भी पगड़ी बांधने की परम्परा रही है। हिन्दु पगड़ी, मुस्लिम पगड़ी, सिक्ख पगड़ी, आर्यसमाजी पगड़ी, ब्रज पगड़ी, अहीरवाली पगड़ी, मेवाती पगड़ी, खाद्दरी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, बांगड़ी पगड़ी, पंजाबी तूर्रेदार पगड़ी, गुज्जर पगड़ी, राजपूती पगड़ी, बिश्रोई पगड़ी, मारवाड़ी पगड़ी, रोड़ों की पगड़ी, बाणियों की पगड़ी, सुनारी पगड़ी, पाकिस्तानी की पगड़ी व मुल्तानी पगड़ी आदि का प्रचलन रहा है। लोकजीवन में परिवार के मुखिया द्वारा पगड़ी पहनने की परम्परा रही है। इसी प्रकार ठोल़े के मुखिया, पट्टी के मुखिया, पान्ने के मुखिया, गांव, गोत्र, सतगामा, अठगामा, बारहा, खाप तथा पाल़ के चौधरी द्वारा भी हरियाणवी पगड़ी बांधने की परम्परा का पालन करते रहे हैं।

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